क्या भूलूँ क्या याद करूँ
जीवन से होकर निराश
थक गए कदम
अगणित कड़वे खट्टे अनुभव
पाषाण कर गयी ह्रदय
उभरी लकीर स्पष्ट अनगिनत
कहती मन की व्यथा सहज
है विवश यह प्राण आन
मौन साधे मजबूर
सबकुछ यकायक बदल गया
संस्कार कहीं खो गए
संस्कृति भटक रही
अपनी पहचान की खोज में
अपने पराये हो गये
बूढ़े अनाथ और असहाय
बच्चों का बचपन डिजिटल होकर रह गया
सब अस्त व्यस्त त्रस्त हैं
पाने की खोज में
खोते जा रहे हैं
पर एक आस बँधी है
कभी कोई आएगा
नवयुग का नवप्रवर्तक बनकर
फिर से भारत का नवनिर्माण करने।
No comments:
Post a Comment