Saturday, 11 November 2017

क्या भूलूॅ क्या याद करूँ

क्या भूलूँ क्या याद करूँ
जीवन से होकर निराश
थक गए कदम
अगणित कड़वे खट्टे  अनुभव
पाषाण कर गयी ह्रदय
उभरी लकीर स्पष्ट अनगिनत
कहती मन की  व्यथा सहज
है विवश यह प्राण आन
मौन साधे मजबूर
सबकुछ  यकायक  बदल गया
संस्कार कहीं  खो गए
संस्कृति भटक रही
अपनी पहचान की खोज में
अपने पराये हो गये
बूढ़े  अनाथ और  असहाय
बच्चों का बचपन  डिजिटल होकर रह गया
सब अस्त व्यस्त  त्रस्त हैं
पाने की खोज में
खोते जा रहे हैं
पर एक आस बँधी है
कभी कोई आएगा
नवयुग का नवप्रवर्तक बनकर
फिर से भारत का नवनिर्माण करने।


Thursday, 2 November 2017

चाँद

उतरा  गगन में  चाँद अपने  शबाब में
धरती भी झूमती है इसे देख  अदा में ।
लहरें भी  उफनती हुई अम्बर को छू रही
साकी नशे में  झूमे  जैसे  मयकदा में ।
सबकुछ है स्निग्ध शांत नहीं भी कहीं  हलचल
बस दिल नहीं  है बस में खयाल- ए-जहाँ  में ।
चंदा को  देख  चांदनी इतरा रही है  आज
पूनम की  रात  छा गई  है आसमान में ।
है दाग चाँद में मगर पूनम का साथ है
मिलकर चमक रहे हैं दोनों  याराना में ।