सातहीं घोड़ा पर सवार सुरूजदेव अइले अटरिया।
हाथ जोड़ी पनिया में ठारी तिवइया सुमिरेली देव के अपार, सुरूजदेव अइले अटरिया।
लाली किरणिया तिवइया के चुनरी, झालर लागल गोटेदार, सुरूजदेव अइले अटरिया।
जोड़े कलसुपवा से पूजे तिवइया दुधवा के अरघ दियाय, सुरूजदेव अइले अटरिया।
नइहर सासुर मांगे तिवइया पायल के रूनझुन झंकार,
सुरूजदेव अइले अटरिया।
घोड़वा चढन के बेटा मांगे आंगन परिछन के दामाद,
सुरूजदेव अइले अटरिया।
अपना के मांगेली अवध सिंधोरवा, नइहर में भाई के दुलार।
Sunday, 11 November 2018
सातहीं घोड़ा
Tuesday, 12 June 2018
हौसला
बारिश की बूँदें बगीचे के पत्तों पर छत के कोर से टपक कर धरती पर बिखर जा रही थी ।हरे पत्तों पर चमकले पानी की बूँद का छिटकना फूलझड़ी सी शोभायमान हो रही थी। मैं ध्यानमग्न इस दृश्य को देख रही थी ।हवा के संयोग से पत्तों का हिलना उनके खुशियों का सहज संकेत सा लग रहा था।अचानक एक छोटा सा कीट अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद करते हुए उन पत्तों पर चढने का असफल प्रयास करते दिखा।बारिश की रफ्तार भी धीमी हो चुकी थी । रह रहकर अब भी छत से पानी टपक रह था।
कीड़ा धीरे धीरे टहनी पकड़ कर पत्ते पर चढने की कोशिश कर रहा था।जब तक वह वह टहनी पकड़ कर पत्ते के पास पहुचता पानी की एक बूँद ऊपर से टपक जाता और वह पुनः फिसल कर नीचे पहुंच जाता ।अपने बचाव की कोशिश में वह किसी प्रकार टहनी पकड़ कर चिपक जाता। फिर ऊपर आने की कोशिश में लग जाता। कई बार ऐसा करने पर भी असफल होने पर मैंने सोचा अब वह अपना रास्ता बदल लेगा पर फिर उसे मैंने ऊपर आने का प्रयास करते देखा ।मैं समझ गई कि यह जिद्दी प्रवृत्ति का है। मेरी उत्सुकता और बढ रही थी उसकी प्रवृत्ति जानने की कि आखिर कबतक यह प्रयास करेगा।अपने लक्ष्य के प्रति वह कितना समर्पित है? वह मानव तो नहीं, है तो एक कीड़ा।
अतः पास में ही कुर्सी लगाकर बैठ गयी और बड़ी ही तन्मयता से उसकी हरकत को देखती रही। खैर! धीरे धीरे वह फिर गति करता दिखा।पुनः वह अपना प्रयास शुरू कर दिया ।पर अब उसकी गति मंद हो चली थी। अब यह साफ पता चल रहा था कि उसमें हिम्मत अब बिलकुल नहीं थी पर फिर भी कोशिश कर रहा था जिससे स्पष्ट हो रहा था कि उसकी इच्छाशक्ति अब भी बुलंद है।
अंततोगत्वा वह किसी प्रकार पत्ते पर आ पहुँचा । मैंने सोचा कि अब वह फड़फड़ायेगा या उड़ेगा या फिर अपने विजय पर नाचेगा।पर यह क्या? वह तो चित्त हो गया। अब कोई सुगबुगाहट नहीं थी। मैंने समीप जाकर एक लकड़ी से हिलाकर देखा। वह कीड़ा स्थिर हो चुका था। ऐसा लगा कि वह वीरगति को प्राप्त किया होया फिर उसकी हिम्मत नहीं टूटी थी मगर साँसें जरूर रूक गई थी।
जाते जाते वह क्षुद्र कहलाने वाले कीड़े ने हमें एक सुंदर सा सबक सीखा दिया था ।इच्छा शक्ति के आगे बूँद की टपक भी थककर बंद हो गई थी ।
सच,
पहिलका डेग- अशोक कुमार तिवारी
भोजपुरी माटी के अमर सपूत मा0 जनेश्वर मिश्र जी के धरती पर श्री अवधेश तिवारी जी के घरे एगो कलम के चित्रकार के जनम भइल जेकर रंगमंच कबहुं कोर्ट बनल त कभो कागज आ कलम। पहिलका किताबे कवि जी के पहिलका डेग भले ही बा पर एही में सब विषय के समेट के आपन डेग के छाप अइसन छोड़ले बानी कि सबरंग रच गईल। ई सब देख के कवि अशोक कुमार तिवारी जी के सुंदर लेखनी के भविष्य साफ हो जाता।
' पहिलका डेग' नाम से ही साफ पता चलताऽ कि कवनो रसिकानंद के पहिल पहिल परोसल कुछ होई। हँ! त अशोक कुमार तिवारी जी के पहीलका काव्य संग्रह ह ई।सताइस कविता के पहिलका डेग में कवि समेट के सिरजन संसार के सब रूप देखवले बानी।
काव्य परम्परा के निरवहन करत कवि जी के आपन पहिलका रचना भगवान के आगे आशीर्वाद के खातिर लिखल मंगलाचरण बा।देश के महानता, गरीबी, सामाजिक कुरीति, चेतावनी, समय के महत्व, भोजपुरी भाषा के मिठास, बोली के विविधता, तथा सम सामयिक शौचालय, दूष्कर्म, पुरनका खेल आ नवका जुग के बदलाव से गाँव के छवि के छोट भइला के दुख आदि विषय के शामिल कइल गईल बा।
अशोक कुमार तिवारी जी के ई पहिलका डेग उनकरा कला के बारे इहे कहता कि पुत के पाँव पलनवे में बुझा जाला। आज के बदलत परिवेश में निमन-बाउर दुनो विचार राउर लउकता।राउर सोच साँच के एकदम लगे बूझाता।
कविता संग्रह में कविता के विविध रूप लउकता।गीत, गजल, भजन, कुंडलिया,हाइकु,सेनस्यू, दोहा के रूप में लिखल बा।
लुंड़ा,चिरउरी,सउरी, मथानी आ नेनुआ के झीखुर आदि शब्द भोजपुरी भाषा के गरब रचऽता।
अइसे त रउरा लड़काईंये से कविता के रसिक बानी।बाकिर राउर कलमिया नवका पीढियन के बदलल रूप आ इस्टाइल के भी 'गाँव होई नापाता' में जे तउल कइल गईल बा , बड़ सुंदर बखान बा।ओका- बोका के चिऊंटा मामा, घुघुआ मामा, छुतुड़ी, गुली डंटा, लंगड़ी बिछिया, कितकितवा आदि पारंपरिक खेल भी राउर बिषय बा।गरीबी के दरद के जाड़ा आवे से पहीलहीं तईयारी के सपना के अपना बेटा के धीर धरावत एगो बाप के बड़ सुंदर पीर बाँचल गइल बा। कवि जी बाढ के कारण गंगा के लहरीये से उनकरा खउलला के कारण जाने के चाहत बाड़न । आदमी के बोली से जे ऊंच-नीच हो जाला इहो विषय पर चर्चा कइले बानी।
कुल मिला के कहल जा सकेला कि समाज के कवनो अंग अशोक जी सेबाकी नइखे। मोबाइल के बारे में वर्तमान समय के स्थिति पर भी खूब सुंदर विचार बा।
बाकिर एक बात कहे के चाहत बानी कि आपन बात कहे खातिर अशोक जी कविता के नियम भा सौंदर्य के भी नकरले बानी। कहीं हिन्दी भाषा के मेल करके आपन कविता के गति देवे के कोशिश कइले बानी त कही भोजपुरी में रूढ शब्द भी जुड़ल। मोबाइल फोन एकर बड़का उदाहरण बा।
Wednesday, 16 May 2018
सपना
आगे आगे जाइब हम पीछे कबहुं ताकब जी।
दुसरे के हम अंगना झाकब अपने मन ना झाकब जी।।
चीन जापान के पुल देख के हमहुं पुल बनाइब जी
कइसे बनीहें बिना विचारे काम शुरू हो जाई जी।।
देश बढइबै ई कुल करबै चाहे जइसे बनवाइब जी
बनही बेरिया ढह जाई त अनके लाग लगाइब जी।।
देश के लोगवा मरी जइहें त लोगवा लोर बहाई जी
फेर दोषवा केकरा पर जाई कोई कह नाही पाई जी।।
जायेवाला चली गईले अब ऊ ना लऊट के आई जी
कुछ दिन हल्ला-गुल्ला होई सबकुछ फेर भुलाई जी।।अइसे लोगवा आगे जइहें अइसही पीछे होई जाई जी
बिना ग्यान के हुनर देखइहें फेर घटना घट जाई जी।।
गाड़ी-घोड़ा इहें रही जइहें लोगवा मारल जाई जी
बिन यमराज के नेवता दिहले उनका घरवा जाई जी।।
कहेला मनवा मोरे मनई अपना मन के जगाईं जी
नाहीं त घटना रउरो दुअरा कबहुंओ एकदिन जाई जी।।
कुछुओ करहुं अपना मउआर के अँखिया में बसाईं जी
तब दुनिया के दुर्दिन देखे कोई कबहु ना जाई जी।।